Saturday, March 28, 2020

मध्यकालीन भारत ( 800 ई.-1200 ई. ) - आर्थिक और सामाजिक जीवन


मध्यकालीन भारत ( 800 ई.-1200 ई. ) का आर्थिक जीवन :-


निष्क्रियता और पतन :-


आर्थिक दृष्टि से उत्तर भारत में यह समय निष्क्रिय रहा और व्यापर वाणिज्य के पतन का काल भी माना जाता है , सातवीं से दशवीं शताब्दी के मध्य यह काल शहरों के पतन और स्वर्ण मुद्राओं और चांदी के सिक्कों के अभाव से दिखाई पड़ता है

() बैजंतिया साम्राज्य ( इस्तांबुल ) ,सासानी साम्राज्य ( ईरान ) का उदय रोमन साम्राज्य (इटली ) के पतन का कारण हुआ था ,भारत के इन दोनों के साथ ही व्यापक व्यापारिक सम्बन्ध थे ,हालांकि रोमन साम्राज्य के साथ भारत का व्यापार समृद्ध और लाभकारी था। फिर भी रोमन साम्राज्य के पतन का प्रभाव उतना नहीं हुआ।

स्थानीयता और छोटे राज्यों का प्रभुत्त :-





 भारत के दक्षिण पूर्व एशिया जिसे सुवर्णभूमि (इंडोनेशिया ) और चीन के साथ प्रगाढ़ होते ही व्यापारिक सम्बन्ध थे ,बंगाल ,दक्षिण भारत, मालवा और गुजरात को इनसे अत्यधिक लाभ हुआ। इस समय देश में व्यापर का पतन आंतरिक घटना क्रम के कारण भी हुआ ,अनेक छोटे राज्य के स्थानीय आत्मनिर्भरता में उल्लेखनीय विकास हुआ। इन राज्यों में कई क्षेत्रों में कृषि का विकास हुआ,किसानों के प्रोत्साहन व अनुरोध  यायावार जनजातियां भी कृषि करने लग गयीं। 



निषेधता :- 

इस काल के चिंतन और धर्मशास्त्रों में भी वाणिज्य ह्रास की झांकी दिखाई पड़ती है,भारत के बाहर यात्रा करने वालों में प्रतिबन्ध लगा दिया गया। भारतीय व्यापारी ,दार्शनिक ,चिकित्सक और शिल्पी बग़दाद और  पश्चिम एशिया के अन्य मुस्लिम शहरों में पंहुचे ,शायद ये निषेध सिर्फ ब्राम्हणों के लिए था या फिर इसका उद्देश्य भारतीयों पर इस्लाम या बौद्ध प्रधान देशों के असनातन धार्मिक विचार से प्रभावित होने का उपजा भय था।

हालाँकि समुद्री यात्रा निषेधता से भारत के समुद्री व्यापार, दक्षिण पूर्व एशिया तथा चीन के साथ वृद्धि में बाधक नहीं हुआ। छठवीं सदी से दक्षिण भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के बीच काफी काफी जोर शोर से व्यापार होता रहा। 


साहित्यिक और धार्मिक :- 

इस काल के साहित्य से पता चलता है के उन क्षेत्रों के देशों से सम्बन्ध में दक्षिण भारत के लोगो की जानकारी बढ़ती जा रही थी। जैसे - हरिषेण के बृहत्कथा-कोश से उन क्षेत्रों की भाषा ,  वेश -भूषा। ' जादुई समुद्र ' में भारतीय व्यापारियों के मणिग्रामन और नानदेशी श्रेणियों में संगठित होने की कथायें मिलती है। 

बहुत से भारतीय व्यापारी दक्षिण -पूर्व एशियाई देशों में बस गए तथा वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये।कालांतर में पुरोहित वर्ग के आगमन के साथ उन क्षेत्रों में बौद्ध एवं हिन्दू धार्मिक विचारों का समावेश हुआ ,जैसे - कम्बोडिया का अंकोरवाट मंदिर और बोरोबुदूर का बौद्ध मंदिर। इस प्रकार भारतीय संस्कृति ने स्थानीय संस्कृति से मिल कर नयी संस्कृति तथा साहित्यिक विधाओं को जनम दिया। 


समुद्र व्यापार और चीन :- 


आम तौर पर अफ्रीका और पश्चिम एशिया के उत्पाद भारत के मालाबार तट से आगे नहीं जाते थे,वहीँ चीन के जहाज भी मलक्का से आगे नहीं बढ़ पाते थे,इस प्रकार भारत ,दक्षिण पूर्व एशिया,अफ्रीका और चीन के बीच होने वाले व्यापार के लिए महत्वपूर्ण काम करते थे 

चीन भारी मात्रा में मसालों,हांथी दांत ,जड़ी बूटियां,लाख सुगन्धियों और तरह तरह की नफीस चीज़ों का आयत के लिए या तो भारत या भारत के समुद्री मार्ग पर निर्भर था। मालाबार ,बंगाल और बर्मा की सागवान की लकड़ी चीन के जहाज निर्माण की उपलब्धता पूर्ण होती थी ,चीन के साथ होने वाला बहुत-सा व्यापार भारतीय जहाजों के जरिये होता था। 


चीनी इतिहासकार के अनुसार चीनी दरबार में बौद्ध भिक्षुओं की सर्वाधिक संख्या ,चीन की कैंटन नदी में भारतीय भारतीय व्यापरियों की जहाज का भरा होना तथा अकेले कैंटन में तीन ब्राम्हणीय मंदिर होने से भारतीयों की उपस्थिति के साक्ष्य थे। 


चीनी सम्राटों के दरबारों को कई दूतमण्डल भेजकर भारतीय शासकों ने व्यापार को प्रोत्साहन देने का प्रयास किया ,तथा मलय या अन्य पडोसी देशों द्वारा द्विपक्षीय व्यापार में हस्तक्षेप करने पर नौसैनिक आक्रमण हुए।  चोल राजा राजेंद्र प्रथम ने चीन को भेजे दूतमण्डल के साथ खुद भी चीन की यात्रा किया।  इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है की यह द्विपक्षीय व्यापार कितना महत्वपूर्ण और लाभप्रद रहा होगा। 


उत्तरार्ध :- 


दशवीं सदी के अंत और ग्यारहवीं सदी के आरम्भ में भारतीय व्यापरियों और पुरोहितों के बढ़ते दबदबे से चीन में संरक्षण की सुगबुगाहट होने लगी। भारत के विदेशी व्यापार के विकास का आधार सबल जहाजरानी परंपरा थी जिसमे जहाज निर्माण और शक्तिशाली नौसेना के आलावा व्यापारियों की कुशलता और उद्द्यमशीलता का भी समावेश था।

तेरहवीं सदी में चीन सोने और चांदी के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगाने का प्रयास किया,साथ ही 'मेरिनर कंपस ' (नाविक दिशा सूचक ) का सफल प्रयोग और चीन के जहाजों की विशालता से भारतीय जहाज उखड़ते चले गए ,क्योंकि चीन के जहाज अधिक बड़े और द्रुतगामी थे। 

पश्चिम दुनिया के साथ भारत के व्यापार में मंदी आयी तो दक्षिण पूर्व एशिया तथा चीन के साथ उसके व्यापार में धीरे-धीरे तेजी आती रही। व्यापार के क्षेत्र में दक्षिण भारत ,बंगाल,और गुजरात आगे रहे और यही क्षेत्र समृद्धि और सम्पत्ति का महत्त्वपूर्ण कारण था।

सामाजिक जीवन :- 


<> इस समय में समाज में एक वर्ग का अभ्युदय हुआ  जिसे समकालीन लेखकों ने सामंत ,राजपूत ( राणक ,राउत ) आदि उपनामों से अभिहित किया। इनमे से तो कुछ सरकारी ओहदेदार थे जिन्हे तनख्वाह की जगह राजस्वदायी गाँव दे दिए जाते थे। कुछ हारे हुए राजा और उनके समर्थक तथा कुछ स्थानीय वंशानुगत सरदार अपने सशक्त समर्थक की सहायता से छोटे - मोटे इलाकों में अपनी सत्ता हासिल कर ली थी। 

<> जनजातीय नेता ,गाँव के मुखिया कुछ कुलों के नेताओं हमेशा एक दूसरे से जूझते रहे ,और अपने प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि करते रहे

<> राजा अपने अधिकारीयों और समर्थकों को दिए गए राजस्व् दान में मिलने वाली जागीर ,इन शासकों के अधिकारी राजस्वी इलाके को अपनी अपनी जागीरों को वंशानुगत मानते थे ,कालांतर में सरकारी अधिकारी भी वंशानुगत माने जाने लगे।

<>  वंशानुगत सरदार धीरे -धीरे न केवल राजस्व वसूलते थे बल्कि अधिकाधिक प्रशासनिक अधिकार भी हथियाने लग गए।  जैसे -अपने अधिकार से सजा देना , जुर्माना लगाना। साथ ही राजा की अनुमति के बिना अपने समर्थकों को जागीर में से उपजागीर देने लग गए ,इससे समाज में सरदारों द्वारा सामंती समाज का उदय देखने को मिलता है।

सामंती समाज ( फ्यूडल समाज ) - समाज के वह प्रभत्त्व वर्ग जो जमीन को जोतने बोन का काम न करते हुए भी उसी से अपनी जीविका प्राप्त करते थे।  इस व्यवस्था  में  फलने फूलने वाले समाज को सामंती समाज कहते हैं। 

सामंती समाज से हानि - 

<>इससे केंद्रीय शक्ति यानी राजा की स्थिति कमजोर हुई। 

<>सरदारों के पास सेनाएं होती थी,जिनका उपयोग राजा के खिलाफ भी होने लगा। 

<>तुर्क आक्रमण के समय ये आतंरिक कमजोरियां साबित हुई और काफी बर्बादी देखनी पड़ी। 

<>छोटे राज्य व्यापार के रास्ते में रुकावट डालते थे। और स्थानीय निर्भरता वाली आर्थिक गतिविधयों को प्रश्रय देते थे 

<>सामंती सरदारों के प्रभुत्व से ग्रामीण स्वशासन कमजोर पड़ा। 

सामंती समाज के लाभ -

<> सामंती सरदारों के प्रभत्व क्षेत्र में अशांति ,अव्यवस्था  के काल में भी स्थानीय लोगों की सुरक्षा  रही। 

<>  सम्बंधित क्षेत्र में लोगों के जान माल की सुरक्षा प्रदान की। 

<> सरदारों ने खेती बाड़ी के विस्तार और सुधार  दिलचस्पी ली ,जो केंद्रीय शासन में कम ही देखने को मिलती थी। 

<> वही व्यापार को प्रोत्साहन देते थे जिससे अधिकाधिक स्थानीय लोग आर्थिक गतिविधि में शामिल रहते थे।

लोगों की अवस्था 


<> दस्तकारियों ( कपडा बनाने ,सोने चांदी ,धातुकर्म का काम करने वाले ) के स्तर में इस काल में कोई गिरावट नहीं आयी। अरब यात्रियों ने भारतीय किसानों की कुशलता,जमीन की उर्वरता तथा कृषि के फलने फूलने की पुष्टि की। 

<> मंत्री ,अधिकारी, सरदार  और बड़े व्यापारी बहुत शानोशौकत से रहते थे ,वे राजा की नक़ल रिहायशी भवनों से लेकर पहनावे और यहाँ तक की उपाधियों से खुद को सुसज्जित करते थे। 

<> खाद्यसामग्री की प्रचुरता थी लेकिन नगरों में ऐसे बहुत से लोग थे जिन्हें पेटभर भोजन नहीं मिलता था था। बारहवीं सदी में लिखी गयी राजतरंगिणी ( कश्मीरी इतिहास ) में भी दरबारी और सामान्य लोगों के खाद्य सामग्री में अंतर से स्थिति को सामने रखा।

<> किसानों से राजस्व के तौर पर उपज के छठे हिस्से की मांग की जाती थी ,लेकिन इसके अतिरिक्त कई शुल्क जैसे -चरागाह कर ,तालाब कर ,दानपात्र आदि की जानकारी मिलती है।

<> सरदार हर मौके का लाभ उठाकर किसानों से कुछ न कुछ ऐंठते रहते थे ,इसके साथ ही आये दिन पड़ने वाले अकाल और बर्बाद कर देने वाली लड़ाइयों को जोड़ दीजिये तो आम लोगों के दुःख की व्यथा की तस्वीर पूरी हो जाती है।

लड़ाइयों के पश्चात जलाशय  जब्त ,अन्नागार में जमा अनाज जब्त ,नगरों का तहस नहस कर देना।  इन कृत्यों को तत्कालीन लेखकों ने उचित ठहराया , इस प्रकार सामंती समाज के विकास ने आम आदमी के सिर का बोझ बहुत बढ़ा दिया। 


जाती व्यवस्था :-


<> स्मृतिकारों ने ब्राम्हणों की विशेष स्थिति का अनुमोदन किया। इस काल में निम्न जातियों की निर्योग्यता में वृद्धि हुई , शूद्र की छाया व्यक्ति को दूषित करती है या नहीं ऐसे विषय भी विचार किये जाने लगे। 

<> अंतर्जातीय विवाह को हेय दृष्टि से देखा जाता था। उच्च जाती का लड़का तथा निम्न जाती की लड़की से विवाह करता था तो इस दाम्पत्यि की संतान जाती माता की जाती से निर्धारित होती थी। यदि लड़का निम्न जाती का होता था तो उसकी संतान की जाती उसी की जाती से तय होती थी। 

<> कारीगरों-दस्तकारों ( कुम्हार ,जुलाहा,सोनार ,गायक, नाई,चर्मकार,मछलीमार आदि। )  की श्रेणियां थी जो अब जातियां मानी जाने लगी ,तथा इनके धंधे को हीन समझा जाने लगा ,इस प्रकार ज्यादातर कारीगर -मजदूर और भील जैसी जनजातितों को अस्पृश्यों का दर्जा दे दिया गया। 

<> स्मृतिकारों के अनुसार शूद्र का भोजन ग्रहण करने से श्रेष्ठ व्यक्ति के पतित होने का जिक्र आया। यह कहना कठिन है की स्मृतियों के विधानों का पालन कहाँ तक किया जाता था। 

स्त्रियों की अवस्था :- 

<> आम तौर स्त्रियों को अविश्वास की दृष्टि से देखा जाता था। उन्हें सामाजिक जीवन से अलग रखा था और उनके जीवन का नियमन पुरुषों को करना होता था। 

<> भूमि के सम्बन्ध में सम्पत्तिक अधिकारों के विकास के साथ स्त्रियों के अधिकारों की भी वृद्धि हुई। परिवार की संपत्ति की रक्षा के लिए स्त्रियों को अपने पुरुष सम्बन्धियों की संपत्ति पर उत्तराधिकार दिया गया। विधवा की संपत्ति का उत्तराधिकार उसकी पुत्री को भी प्राप्त था। इस प्रकार सामंती समाज ने निजी संपत्ति की अवधारणा को मजबूत बनाया। 

<> अरब लेखक सुलेमान के अनुसार राजाओं की पत्नियां कभी - कभी सती हो जाती थीं लेकिन ऐसा करना न करना उनकी इच्छा पर निर्भर था। मालूम होता है की सामंती सरदार बड़ी संख्या में स्त्रियों को रखने लगे थे।  संपत्ति को लेकर विवाद छिड़ने लगे,और इससे सती प्रथा अधिक फैली। 

<> इस काल में भी पहले की तरह स्त्रियों को सामन्यतः मानसिक दृष्टि से हीन माना जाता था। उनका कर्त्तव्य आँख मूँद कर पति की आज्ञा का पालन करना चाहिए। उन्हें वेद पढ़ना इस काल में वर्जित रहा। इसके आलावा लड़कियों की विवाह की उम्र भी कम कर दी गयी,जिससे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के रास्ते भी बंद हो गए। 

<>कुछ नाटकों से मालूम होता है की दरबारी स्त्रियों यहाँ तक की रानी की अनुचरियाँ भी संस्कृत और प्राकृत में उत्त्कृष्ट कवितायेँ लिख सकती थीं। कई कथाओं से ज्ञात होता है की राजकुमारियां,ललितकलाओं में खासकर चित्रकारी और संगीत में प्रवीण होती थी।

<> स्मृतियों के विधान अनुसार छः से आठ वर्ष की आयु से पहले विवाह कर दिए जाते थे ,कुछ परिस्थितियों में पुनर्विवाह की अनुमति थी जैसे - पति पत्नी को छोड़कर चला जाये और उसका पता न मिले , मृत्यु हो जाने पर ,नपुंशक हो ,जाती बहिष्कृत कर दिया गया हो या गृहत्यागी हो गया हो। 










स्रोत :- NCERT 












Sunday, March 22, 2020

जनता कर्फ़्यू का इतिहास और वर्तमान


जनता कर्फ़्यू 


यह जनता का,जनता के द्वारा लगाया गया खुद पर एक प्रचलित आंदोलन है। इतिहास में सामान्यतः इसका प्रयोग सरकार के खिलाफ होता आया है। 

चर्चा में क्यों :-


विश्वव्यापी घोषित महामारी कोरोना जिसने अब तक 186 देशों को अपने चपेट में लिया है ,वायरस COVID-19 जो भारत में भी दस्तक दे चुका है , सुरक्षा के मद्देनज़र भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 19 मार्च 2020 को देश के नाम सम्बोधन में इसका जिक्र किया है।


कैसा रहा इसका इतिहास :-


"अहमदाबाद-रॉयल सिटी टू मेगा सिटी " नमक किताब में कहा गया है की यह शब्द् ( जनता कर्फ्यू ) 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से लिया गया है। दरअसल इसमें लोग अपने घर से बाहर न निकल कर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बहिष्कार करती है जिसके फलस्वरूप शहर के सेवाएं बंद हो गयी,तभी से इस तरह के विरोध प्रदर्शन को जनता कर्फ्यू कहा जाने लगा।

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इसके आलावा गुजरात -महाराष्ट्र के राज्य बनने से पहले बॉम्बे स्टेट हुआ करता था,लेकिन बंटवारे के दौरान बॉम्बे के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई कच्छ के क्षेत्र को गुजरात को न देने की ज़िद में अड़े थे इसके लिए उन्होंने भूख हड़ताल में भी भाग लिया , इसी दौरान गुजरात के समाजसेवी इंदुलाल याग्निक ने " जनता कर्फ्यू " का आवाह्न किया और मोरारजी देसाई का समर्थन न करने एवं लोगों को घर में रहने की अपील की। वस्तुतः आंदोलन सफल हुआ ,और कच्छ का क्षेत्र आज गुजरात में है।


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 वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने राजनीतिक इतिहास में 1973-74 में तत्कालीन ABVP
 ( अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ) के प्रचारक के तौर पर गुजरात के उस समय के लोकप्रिय नवनिर्माण आंदोलन में सक्रिय भूमिका में थे ।

जुलाई 1973 में चिमनभाई पटेल मुख्यमंत्री बने,लेकिन कुछ ही माह दिसंबर 1973 में उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे तथा महंगाई बढ़ने से लोग सड़कों में उतर आते हैं,कई तरीके के विरोध प्रदर्शन होते हैं उन्हीं प्रदर्शन के दौरान "जनता कर्फ्यू " देखने को मिलता है।
अंततः गुजरात के राजनितिक इतिहास में यह आंदोलन काफी सफल माना जाता है क्योंकि तत्कालीन केंद्र की इंदिरा गाँधी  सरकार भी अपनी गुजरात सरकार बचा नहीं पाईं थी ,अंततः चिमनभाई पटेल को इस्तीफ़ा देना पड़ता है।

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2013 में गोरखालैंड  की मांग के लिए एक संस्था "गोरखा जन मुक्ति मोर्चा " ने दार्जीलिंग ( पश्चिम बंगाल ) में 2 दिन का 'जनता कर्फ्यू 'का आव्हान किया था। जिससे आम नागरिकों को वस्तु और सेवाओं की काफी दिक्कत हुई।

निष्कर्ष :- 

यह विरोध का नायाब तरीका हो सकता है ,लेकिन संक्रमित वायरस जो मानव -से -मानव में बहुत जल्दी संक्रमित करता है ,उस हिसाब से इस तरीके को भीड़ कम करने , स्वास्थ सेवाओं में दबाव कम करने ,आर्थिक और नागरिक नुकसान कम करने का ये तरीका निश्चित ही उम्दा कदम कह सकते हैं।








Friday, March 20, 2020

19 वीं सदी के प्रमुख जनजातीय विद्रोह


◆प्रमुख जनजातीय विद्रोह 


● खोंड विद्रोह (1837-56 ,1914 )


. नेतृत्व - चक्र बिसोई 

. प्रभाव क्षेत्र :- उड़ीसा ,बंगाल और दक्षिण मध्य भारत 

. मुख्य कारण :- सरकार द्वारा नए करों को लगाना, उनके क्षेत्र में जमीदारों और साहूकारों को प्रवेश। खोंडों में जनजातीय रीति रिवाज़ों में हस्तक्षेप किये जाने के कारण विद्रोह 

<> 1837 से 1856 एवं पुनः 1914 में  विद्रोह हुआ ,लेकिन 1857 में दंडसेना को फांसी देने के बाद यह आंदोलन समाप्त हो गया। 

●कोल विद्रोह ( 1831-32 )


. नेतृत्व :- बुद्धो भगत 

. प्रभाव क्षेत्र :- छोटा नागपुर का भू-भाग ( झारखंड )

. मुख्य कारण :- अंग्रेज़ों द्वारा उस क्षेत्र में प्रसार ,जमीदारों और ठेकेदारों द्वारा भूमि कर बढ़ाना ,छोटा नागपुर के राजा द्वारा स्थानीय आदिवासियों के बजाय दिकुओं ( बाहरी लोगों ) को भूमि देना। 

<>  बुद्धो भगत की मृत्यु और सैन्य अभियान से ही यह आंदोलन शांत किया जा सका ,एवं शांति पुनः स्थापित की जा सकी। 

●संथाल विद्रोह (1855-56 )


नेतृत्व :- सिद्धो और कान्हू 

प्रभाव क्षेत्र :- बिहार ( संथाल परगना )

प्रमुख कारण :-  संथालों (कृषि  करने वाली जनजाति ) के निरंतर दमन ने जमीदारों जिन्हें पुलिस का समर्थन प्राप्त था ,के विरूद्ध संथालों के विद्रोह को जनम दिया। 

<>  विद्रोहियों ने भागलपुर तथा राजमहल के बीच स्वायत्त क्षेत्र घोषित किया,फलस्वरूप 1856 में ब्राउन और जनरल लॉयड ने  विद्रोह का दमन कर दिया। 1856 में ही पृथक संथाल परगना की स्थापना हुई। 

●मुंडा विद्रोह ( 1899 - 1900 )

नेतृत्व :- बिरसा मुंडा 

प्रभाव क्षेत्र :- छोटा नागपुर 

प्रमुख कारण :- खूंटकट्टी ( सामूहिक भूमि-स्वामित्त ) आधारित जनजातियों की कृषि व्यवस्था पर जमीदारों का कब्ज़ा,व्यापारियों  साहूकारों द्वारा आर्थिक चोट ,ईसाई  मिशनरियों द्वारा सामजिक पद्धत्ति पर चोट होने का परिणाम था। 

<> इसे "उलगुलान विद्रोह" के रूप में जाना जाता है,

<> फरवरी 1900 में बिरसा मुंडा को सिंहभूमि में गिरफ्तार कर रांची जेल में डाल दिया , विद्रोह का दमन कर दिया गया। 

●खासी विद्रोह ( 1827-33 )


नेतृत्व :-  तीरथ सिंह

प्रभाव क्षेत्र :- जयंतिया और गारो पहाड़ियों के बीच का क्षेत्र

प्रमुख कारण :- ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा पहाड़ी क्षेत्र में बाहरी लोगों के हस्तक्षेप से खासी, गारो ,खंपतिस्,एवं सिंगफोस जातियों का विद्रोह परिणाम था।

<> 1833 में इसे सैन्य कार्यवाही द्वारा इसे दबा दिया गया।


●रामोसी विद्रोह ( 1822,1825-26 ,1839-41 )


. नेतृत्व :- चित्तर सिंह और नरसिंह दत्तात्रेय पेतकर 

. प्रभाव क्षेत्र :- पश्चिम घाट ( महाराष्ट्र ) 

. प्रमुख कारण :- अंग्रेज़ों का साम्रज्यवादी आर्थिक शोषण,अकाल और भूख की समस्या। 


●रम्पा विद्रोह ( 1922-24 ) 

. नेतृत्व :- अल्लुरी सीताराम राजू 

. प्रभाव क्षेत्र :- गोदावरी नदी नदी के पहाड़ी  क्षेत्र के उत्तर में अर्द्ध -आदिवासी रम्पा क्षेत्र 

. प्रमुख कारण :- व्यापारी, साहूकार का शोषण,झूम कृषि पर रोक,वन विभाग कानून जो आदिवासियों की चराई सम्बन्धी अधिकार को समाप्त करना था। 

<> विद्रोह में गोर्रिल्ला युद्ध नीति का अनुशरण किया गया। 

<> सितम्बर 1924 में सीताराम राजू के मरते ही आंदोलन समाप्त हो गया। 









Tuesday, March 17, 2020

केंद्र-राज्य संबंध


केंद्र राज्य संबंध :-


केंद्र राज्य सम्बन्ध से अभिप्राय है किसी लोकतान्त्रिक देश में संघवादी केंद्र और उसकी इकाइयों के बीच के आपसी सम्बन्ध से है। भारतीय संविधान में भारत 'राज्यों का संघ 'कहा गया है न की संघवादी राज्य। भारतीय संविधान द्वारा विधायी ,प्रशासनिक और वित्तीय शक्तियों का स्पष्ट बंटवारा केंद्र  राज्यों के बीच किया गया है। 

a . विधायी सम्बन्ध -( अनुच्छेद 245 - 255 )

b .प्रशासनिक सम्बन्ध -( अनुच्छेद 256 -263 )

c. वित्तीय सम्बन्ध -(अनुच्छेद 268 -293 )


 विधायी सम्बन्ध :-


संविधान के भाग 11 में अनुच्छेद 245 से 255 तक केंद्र और राज्यों के विधायी संबंधों की चर्चा की गयी है,केंद्र राज्य संबंधो के मामले में चार स्थितियाँ है :-

<> केंद्र एवं राज्य विधान के सीमांत क्षेत्र

<> विधायी विषयों का बंटवारा।

<> राज्य क्षेत्र में संसदीय विधान

<> राज्य विधान पर केंद्र का नियंत्रण।

अनुच्छेद 245  :- संसद भारत के सम्पूर्ण क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए कानून बना सकती है और राज्य के विधानमंडलों द्वारा बनायीं गयी विधियों का विस्तार करने का अधिकार है। ये कानून भारतीय नागरिकों एवं विश्व में स्थित उनकी किसी भी संपत्ति पर भी लागू होता है।

अनुच्छेद 246 : इसके अंतर्गत विधायी सम्बन्धो में त्रि-स्तरीय  व्यवस्था की गई है।

संघ सूची :- विषय 100 ( पहले मूलतः 97 थे ) कानून बनाने की संसद की विशिष्ट शक्ति होती है

राज्य सूची  :- विषय 61 ( पहले 66 थे ) कानून बनाने का अधिकार सामान्य परिस्थितियों में राज्य विधानमण्डल का होता है।

समवर्ती सूची :-विषय 52 ( मूलतः 47 ) इस पर संसद और राज्य दोनों विधान बना सकती हैं।

अनुच्छेद 247 :- कुछ अतिरिक्त न्यायालयों की स्थापना का उपबंध करने की संसद की शक्ति

अनुच्छेद 248 :- अवशिष्ट विधायी शक्तियां। संसद को ऐसे विषय पर कानून बनाने का अधिकार जो तीनों सूची में नहीं आते।

अनुच्छेद 249 :- यदि राज्य सभा यह घोषित करे की राष्ट्रहित में राज्यसूचि के मामले में मामले में संसद को कानून बनाना चाहिए तो संसद कानून बना सकती है , उपस्थित सदस्यों के 2 / 3 समर्थन मिलना चाहिए और यह कानून 1 वर्ष तक प्रभावी रहेगा  और इसे असंख्य बार बढ़ाया जा सकता है।

अनुच्छेद 250 :- संसद राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान राज्य सूची के मामलों की शक्तियां अभिग्रहित कर लेती है तथा आपातकाल के बाद यह व्यवस्था 6 माह तक प्रभावी रहती है।

अनुच्छेद 251 :-राज्यों को अनुच्छेद 249 और 250 के अंतर्गत बनी विधियों के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार तो है परन्तु केंद्रीय कानून से संघर्ष की स्थिति में केंद्रीय कानून प्रभावी होगा।

अनुच्छेद 252 :- दो या दो से अधिक राज्य विधानमंडल यह प्रस्ताव पारित करें की राज्य सूची पर संसद कानून बनाये तो संसद उस मामले में कानून बना सकती है। यह कानून उन्हीं राज्यों पर प्रभावी होगा जिन्होंने यह प्रस्ताव भेजा है। कोई अन्य राज्य चाहे तो यह प्रस्ताव को पारित कर इसे लागू कर सकता है।

अनुच्छेद 253 :- संसद,राज्य सूची के विषय पर अंतर्राष्ट्रीय संधि और समझौतों पर कानून बना सकती है।

अनुच्छेद 254 :- राज्य विधान मंडल एवं संसद द्वारा बनाये गए कानून में विसंगति आती है तो संसद द्वारा बनाया गया कानून प्रभावी होगा।

अनुच्छेद 255 :- सिफारिशों और पूर्व मंजूरी के बारे में अपेक्षाओं को केवल प्रक्रिया के विषय मानना।

प्रशासनिक संबंध :- 

 संविधान के भाग 11 में अनुच्छेद 256 से 263 तक केंद्र व राज्य के बीच प्रशासनिक संबंधो की व्याख्या की गयी है। -

अनुच्छेद 256 :- 
राज्य को अपनी कार्यपालिका शक्ति का इस प्रकार प्रयोग करना होगा की संसदीय कानून का पालन हो सके। केंद्र ,राज्य को निम्न मामलों में निर्देश जारी कर सकता है --( आर्टिकल 257 के अनुशार )

. संचार साधनों को बनाये रखना एवं रखरखाव
. राज्य में रेलवे संपत्ति की रक्षा।
. प्राथमिक शिक्षा की स्तर पर राज्य भाषायी अल्पसंख्यक के बच्चों हेतु मातृभाषा सीखने की व्यवस्था करें।
. राज्य अनुसूचित जनजातियों के कल्याण हेतु विशेष योजना बनाकर क्रियान्वयन करें।

अनुच्छेद 257 :- राज्य अपनी कार्यपालिका शक्ति का इस प्रकार पालन करें की केंद्रीय कार्यपालिका शक्ति में बाधा उत्पन्न ना हो।

अनुच्छेद 258 :- राष्ट्रपति द्वारा,राज्य की सहमति पर केंद्र के किसी कार्यकारी कार्य को उस राज्य को सौंप सकता है। इसी तरह राज्यपाल केंद्र की सहमति से राज्य के कार्य को कराता है।--

<> अखिल भारतीय सेवाओं की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है।  इन पर पूर्ण नियंत्रण केंद्र का एवं तात्कालिक नियंत्रण राज्य का होता है।

<> राज्य लोक सेवा आयोग ,संयुक्त राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों की नियुक्ति राज्यपाल करता है किन्तु उन्हें सिर्फ राष्ट्रपति द्वारा ही हटाया जा सकता है।

<> राज्य के राज्यपाल एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति भी राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।

<> आपातकाल के दौरान संपूर्ण देश का प्रशासन केंद्र के पास होता है।

अनुच्छेद 355 :- केंद्र ,बाह्य आक्रमण एवं आंतरिक अशांति से प्रत्येक राज्य की रक्षा और यह सुनिश्चित करना की प्रत्येक राज्य की सरकार संविधान के अनुरूप कार्य कर रही है या नहीं।


अनुच्छेद 259: - पहली अनुसूची के भाग-बी में राज्यों में सशस्त्र बल  ( निरस्त 7 वां संशोधन )

अनुच्छेद 260: - भारत के बाहर के राज्य क्षेत्रों के  सम्बन्ध में संघ की अधिकारिता

अनुच्छेद 261:- सार्वजनिक कार्य ,अभिलेख और न्यायिक कार्यवाहियां

अनुच्छेद 262:- अंतर्राज्यीय नदियाँ या नदी दूनो के जल सम्बन्धी विवादों का न्यायनिर्णयन

अनुच्छेद 263:- अन्तर्राज्यीय परिषद के सम्बन्ध में उपबंध।







Wednesday, March 4, 2020

उत्तराखंड बाढ़ 2013


◆उत्तराखंड बाढ़ :-


भारत के उत्तराखंड राज्य में 2013 में आई विनाशकारी बाढ़ ने विनिर्माण क्षेत्र के निर्माण कार्य को नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर कर दिया था। उत्तराखंड राज्य का ऊपरी हिमालयी क्षेत्र वनों और हिम से आच्छादित है। इसी क्षेत्र में केदारनाथ और बद्रीनाथ जैसे महत्त्वपूर्ण हिन्दू तीर्थ स्थल भी हैं यहाँ वर्ष 2013 में 14 -17 जून तक इतनी घनघोर वर्षा हुई की इसने विनाशकारी बाढ़ का का रूप धारण कर लिया। इस भयानक आपदा में 5000 से ज्यादा लोग ने अपनी ज़िंदगी गवां दी तथा हज़ारों लोग बेघर हो गए। इसका प्रभाव हिमाचल प्रदेश  और पश्चिम नेपाल तक हुआ।

◆उत्पत्ति :-



<>  14 -17 जून 2013 को उत्तराखंड राज्य में हुई अचानक मूसलाधार बारिश 340 मिलीमीटर दर्ज की गयी जो सामान्य बेंचमार्क ( 65.9मिमी ) से 375 प्रतिशत ज्यादा होने से बाढ़ की स्थिति उत्त्पन्न हुई।

<>उत्तरकाशी में बादल फटने के बाद अस्सीगंगा और भागीरथ में जल स्तर बढ़ गया।

<> गर्मियों के दौरान बर्फ पिघलने से जून के महीने में सामान्यतः यहाँ का मौसम नम रहता है। जिससे बाढ़ का विकराल रूप बनने में सहायक की तरह काम किया।

<> चोराबरी हिमानी पिघलने से मंदाकनी नदी में बाढ़ की स्थिति

◆प्रभावित क्षेत्र :-  



<>  नेपाल की महाकाली और धौलीगंगा वाले क्षेत्र में व्यापक नुकसान हुआ ,इक रिपोर्ट के अनुशार 1500 से ज्यादा लोग बेघर ,125 घर और 15 सरकारी कार्यालय बह गए।

<> दिल्ली और NCR क्षेत्र में और यमुना नदी के निचले क्षेत्रों में जल प्रवाह 207.75 मीटर से ऊपर पहुँच गया जो एक नया रिकॉर्ड बना।

<> हिमाचल प्रदेश और उत्तरप्रदेश  में बाढ़ से जीवन और संपत्ति का काफी नुकसान हुआ।


हालाँकि भारतीय मौसम विज्ञान ने भारी वर्षा का पूर्वानुमान जताया था लेकिन मौसम विभाग की चेतावनी को आम जनता के बीच प्रसारित नहीं किया गया किया गया। भारी वर्षा के कारण बाढ़ और भू-स्खलन दोनों का सामना करना पड़ा। ऐसे में कई स्थानों पर यात्रीगण और स्थानीय निवासी फंस गए। केदारनाथ मंदिर का  भी निचला भाग क्षतिग्रस्त हो गया।

चोराबारी हिमानी पिघलने  नदी में बाढ़ की स्थिति बनने से गोविंदघाट और केदारनाथ मंदिर के आस पास का क्षेत्र जलप्लावित होने लगा जिससे कई होटल कई होटल बाढ़ से क्षतिग्रस्त हुए।

उल्लेखनीय  है की उत्तराखंड में आयी बाढ़ को हम सामान्यतौर पर प्राकृतिक आपदा की संज्ञा दे दें लेकिन इससे भी नहीं बचा जा सकता की इस  आपदा के लिए बहुत सीमा तक मानवीय क्रियाकलाप भी दोषी हैं।

●जैसे :-

><  पर्यटन में अनियंत्रित वृद्धि 

><बिना जांच-परीक्षण के सड़कों ,होटलों दुकानों में वृद्धी  

><अनियोजित भवन निर्माण आदि के कारण भू-स्खलन जैसी स्थिति उत्पन्न हुई। 

>< जलविद्युत्त परियोजनाओं में वृद्धि के कारण भी जल संतुलन बाधित हुआ। 



इस त्रासदी से निपटने के लिए भारतीय थल सेना ,वायु सेना ,नौ सेना,ITBP ,SSB ,लोक निर्माण विभाग ,NDRF ,स्थानीय प्रशासन सभी ने एकजुट होकर कार्य किया इससे स्थिति पर नियंत्रण पाने का प्रयास किया गया । इसके अतिरिक्त देशवाशियों ने भी बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए खोले गए विभिन्न शिविरों में खाद्य सामग्री एवं नकद राशि का योगदान दिया।



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